Thursday, April 4, 2019

अमित शाह के चुनाव क्षेत्र का यह मुस्लिम इलाक़ा 'अछूत' क्यों- लोकसभा चुनाव

"कांग्रेस को लगता है कि हम उसके घर की खेती हैं जबकि बीजेपी हमारी उपेक्षा करती है. हम चक्की में पिस रहे हैं." यह कहना है जुहापुरा के रहने वाले आसिफ़ ख़ान पठान का.
इस बार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात की गांधीनगर सीट से बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर नामांकन भरा है. ऐसे में अहमदाबाद से पश्चिम में मौजूद जुहापुरा एक बार फिर चर्चा में आ गया है.
लगभग पांच वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला जुहापुरा क़रीब पांच लाख लोगों का ठिकाना है जिनमें से अधिकांश मुसलमान हैं.
ये इलाक़ा पहले सरखेज विधानसभा सीट के अंतर्गत आता था, जहां से अमित शाह रिकॉर्ड बहुमत के साथ जीतते रहे थे. अब ये वेजलपुर विधानसभा क्षेत्र में और गांधीनगर लोकसभा सीट के तहत आता है.
गुजरात में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के बाद बड़ी तादाद में मुसलमान परिवारों ने सुरक्षा की चाहत में जुहापुरा का रुख़ किया था और यहीं पर अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू की. इनमें से कई परिवार 2002 दंगों के बाद यहां आ कर बसे थे.
अहमदाबाद के इतिहास को देखें तो यहां आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण हिंदू और मुस्लिम ही नहीं बल्कि जाति आधारित गलियां और मोहल्ले भी अस्तित्व में रहे हैं.
हालांकि पलायन और साम्प्रदायिक दंगों के कारण गुजरात सहित देश भर में एक ख़ास जाति के लोग एक जगह रहने को (घेटो में रहने) मजबूर हुए हैं, इस तरह की घटनाएं यहां भी देखी गई हैं.
एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े नज़ीर शेख़ कहते हैं, "जुहापुरा में रहने के कारण भेदभाव का सामना करना हमारे लिए आम बात है."
"रिक्शा चालक यहां आने के लिए तैयार नहीं होते हैं. अगर कोई आने के लिए तैयार हो भी जाए तो हमारा ग़ैर-मुस्लिम हुलिया देखकर कहते हैं- इस तरह के इलाक़े में क्यों रहते हो? यह सुरक्षित नहीं है."
"ऐप पर आप टैक्सी बुक करें तो कुछ देर में टैक्सी ड्राइवर ख़ुद ट्रिप कैंसल कर देते हैं."
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वाले सारिक लालीवाला कहते हैं कि जब यहां के युवा नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाते हैं तो उनके साथ भेदभाव होता है.
वो कहते हैं, "वो अपना असल पता बताने से डरते हैं और इस कारण अपने रिश्तेदारों का पता देना पसंद करते हैं."
हालांकि मांसाहारी के शौकीन हिंदुओं के लिए जुहापुरा की रेस्तरां और ठेले किसी तरह के 'फूड हब' से कम नहीं है.
समाज विज्ञानी अच्युत याज्ञनिक कहते हैं कि जुहापुरा में मुस्लिमों का सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक विभाजन भी हुआ है.
वो कहते हैं, "मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है."
1973 में साबरमती नदी में बाढ़ आई थी, तब दो हज़ार से अधिक बेघर हिंदू और मुस्लिम परिवारों को बसाने के लिए सरकार ने अहमदाबाद शहर के पश्चिम में एक जगह दी थी. यहीं पर बसी बस्ती का नाम पड़ा- जुहापुरा.
लेकिन गुजरात में 1985, 1987 और 1992 के दंगों के कारण हिंदू और मुसलमानों के बीच एक खाई पैदा हो गई. इसके बाद हुए 2002 के दंगों ने इस खाई को और भी गहरा कर दिया.
शहर के जिन इलाक़ों में कम संख्या में मुसलमान रहते थे उन्हें सबसे ज्यादा नुक़सान उठाना पड़ा. इसलिए सुरक्षित बसेरे की चाह में मुसलमान परिवारों ने जुहापुरा का रुख़ किया.
अहमदाबाद के नवरंगपुरा और पालड़ी जैसे इलाक़ों में रहने वाले शिक्षित और संपन्न मुसलमान परिवारों ने भी सुरक्षा की तलाश में जुहापुरा में ही की.
इसके अलावा 2002 में अन्य ज़िलों में दंगों के शिकार हुए लोगों ने भी जुहापुरा में शरण ली और धीरे-धीरे से एक बड़े मुस्लिम घेटो में तब्दील हो गई.
लेकिन जुहापुरा की पहचान शहर के भीतर एक दूसरे ही शहर के रूप में की जाती है.
अहमदाबाद एरिया डेवलपमेंट ऑथोरिटी के अंतर्गत आने वाले जुहापुरा को 2007 में अहमदाबाद नगरपालिका से जोड़ा गया लेकिन अब भी वहां मूलभूत सुविधाओं की कमी साफ़ दिखती है.

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