Friday, April 12, 2019

इंदिरा गांधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी 'दुर्गा' नहीं कहा!

भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़ कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हवाले से इंदिरा गांधी को लेकर एक बयान दिया है जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा हैं.
अभिनेता से नेता बने शत्रुघ्न सिन्हा ने बीजेपी के स्थापना दिवस पर अपनी पुरानी पार्टी को छोड़ कांग्रेस पार्टी में शामिल होने की औपचारिक घोषणा की थी.
इस मौक़े पर कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय में हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में शत्रुघ्न सिन्हा ने कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला समेत अन्य कांग्रेसी नेताओं की मौजूदगी में ये बयान दिया.
उन्होंने कहा, "हमारे भूतपूर्व और अभूतपूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने इसी संसद में भारत की नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की सबसे बड़ी स्टार प्राइम मिनिस्टर श्रीमती इंदिरा गाँधी को उन्होंने न भूतो न भविष्यतो कहा और संसद में उनकी तुलना दुर्गा से की."
सिन्हा इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बीजेपी द्वारा विपक्ष को नकारे जाने के रवैये की आलोचना कर रहे थे. सिन्हा ने कहा कि अगर आपका विरोधी भी कोई अच्छी बात करे तो उसकी तारीफ़ होनी चाहिए. अगर अच्छा नहीं लगता है तो भूल जाइये और अगर अच्छा लगता है तो सलाम कीजिये.
वाजपेयी और इंदिरा गांधी का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, "आज नवरात्र है तो मुझे याद आ रहा है. इसलिए मैं उनको नमन करता हूँ. प्रणाम करता हूँ और वंदन करता हूँ कि उनकी (इंदिरा गांधी) उन्होंने (वाजपेयी) दुर्गा से तुलना की"
अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा इंदिरा गाँधी को 'दुर्गा का रूप' कहे जाने की बात पहले भी कई बार उठ चुकी है.
बीजेपी के विपक्षी दल, मुख्यत: कांग्रेस के नेता कई
इस टीवी इंटरव्यू में जब वाजपेयी से 'इंदिरा-दुर्गा' वाला सवाल पूछा गया था तो पढ़िए कि शब्दश: उन्होंने क्या कहा था:
''मैंने दुर्गा नहीं कहा. यह भी अख़बार वालों ने छाप दिया और मैं खंडन करता रह गया कि मैंने उन्हें दुर्गा नहीं कहा. नहीं कहा. फिर इस पर बड़ी खोज हुई. श्रीमती पुपुल जयकर ने इंदिरा जी के बारे में एक पुस्तक लिखी और उस पुस्तक में वो इस बात का उल्लेख करना चाहती थीं कि वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा है. तो वो मेरे पास आयीं. मैंने कहा कि मैंने ये नहीं कहा. मेरे नाम से छप ज़रूर गया था. तो फिर उन्होंने लाइब्रेरी में जाकर सारी पुस्तकें खंगाल लीं. सारी कार्यवाहियां देख लीं. पर उसमे कहीं दुर्गा नहीं मिला. पर अभी भी दुर्गा मेरे पीछे हैं. जैसा आपके सवाल से लगता है.''
बार इस घटना का उदारहण देते रहे हैं.
ऑनलाइन रिसर्च से पता चलता है कि कई दफ़ा बीजेपी के वरिष्ठ नेता इस बयान का खंडन कर चुके हैं और कह चुके हैं कि वाजपेयी ने कभी ऐसा नहीं कहा.
अपनी रिसर्च में हमें इंटरनेट पर मौजूद अटल बिहारी वाजपेयी का एक पुराना इंटरव्यू मिला.
इस वीडियो इंटरव्यू में अटल बिहारी वाजपेयी को ख़ुद इस बात का खंडन करते हुए सुना जा सकता है कि उन्होंने कभी भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए ये शब्द नहीं कहे.
2019 के लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा जैसा बयान सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने भी दिया था.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी द्वारा आयोजित विपक्ष की महागठबंधन रैली में येचुरी ने कहा था कि ''आरएसएस ने और भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को 'दुर्गा' कहा था''
येचुरी के इस बयान के बारे में बीबीसी ने आरएसएस के जानकार और संघ के मुखपत्र के एडिटर प्रफुल्ल केतकर से बात की.
केतकर ने सीताराम येचुरी के बयान का खंडन किया.
उन्होंने कहा कि "आरएसएस ने कभी भी इंदिरा गाँधी को दुर्गा का रूप नहीं कहा है."

Tuesday, April 9, 2019

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أجرى باحثون دراسةً حول اللغة التي نستخدمها عندما نتواصل مع من يُحتمل أن نواعدهم عبر شبكة الإنترنت. وصنّف القائمون على الدراسة كل استراتيجيات المحادثة التي قد نستخدمها، لتقييم أيها قد تفضي إلى تحديد موعد ثانٍ مع الشريك المحتمل.
وجمع الباحثون في هذا الصدد كل الرسائل التي تبادلها أفراد عينة الدراسة منذ اللحظة الأولى لبدء حديثهما، وصولاً إلى اتفاقهما على موعدهما الأول وتخطيطهما لذلك، كما تابعوا حالات هؤلاء الأشخاص للنظر فيما إذا كان كل اثنين منهم سيتفقان خلال الموعد الأول على لقاءٍ ثانٍ أم لا.
وتقول ليزل شرابي، أستاذة مساعدة في جامعة "ويست فرجينيا"، إنها وزملاؤها الباحثون وجدوا أن العبارات الافتتاحية المُستخدمة في مثل هذه المحادثات، لم تُحْدِث أي فارق في النتيجة النهائية للحوار، مُشيرةً إلى أن الناس يلجؤون في هذا الشأن إلى مفرداتٍ بريئة المظهر ومحايدة مثل "مرحبا".
وتضيف أن السيناريو التقليدي للمواعدة يتمثل في أن يفاتح الرجال النساء، "وهو ما وجدناه قائماً على الإنترنت بصفةٍ عامة. لكن الجزء الأكثر إثارة هنا، هو ذاك المتعلق بمدى محدودية الفوارق بين الجنسين في أنماط الاستراتيجيات التي يتبعانها. فأوجه التشابه بين الرجال والنساء تفوق أوجه الاختلاف بينهم".
وبوجهٍ عام، حدد الباحثون 18 فئةً فرعيةً مختلفةً لاستراتيجيات المواعدة. وتبين أنه بمجرد أن تجاوز الشخصان اللذان يبحثان إمكانية التواعد عاطفياً، مرحلة البدايات في الحوار، كان الموضوع الأكثر فعالية في المحادثة بينهما، والذي قاد إلى تحديد موعدٍ ثانٍ، هو الحديث عن تفضيلات كلٍ منهما.
ووجد الباحثون أن اتصافك بالصراحة في الحديث عن الشخص الذي تبحث عنه ونمط شخصيته، أكثر فعالية من أن تتحدث عن صحتك ومكانتك، أو بشأن كونك تنشد الحب وتبحث عنه من عدمه. أما الاستراتيجية التي تبين أنها أقل تأثيراً، فتمثلت في تركيزك في النقاش على علاقات المواعدة التي تربطك بآخرين.
وبعد أن قيمنا مدى جاذبية شخصٍ ما، وتحادثنا معه لوقتٍ طويلٍ يكفي لبلورة اتفاقٍ على لقاءٍ أول، ما هي الخطوة التالية؟ بعد ذلك، سنكون بحاجة إلى تقييم بعضٍ الخصائص والخصال الشخصية، الأكثر تعقيداً مما سبق.
ويمكن القول إن هوية من نرغب في مفاتحته للمواعدة تتحدد على أساس شعورنا بمدى كونه مرغوباً فيه من جهة وتفسيرنا نحن لما تعنيه مسألة تقدير الذات من جهةٍ أخرى. إذ أننا نميل إلى التوافق مع الأشخاص الذين نراهم متماثلين معنا في الجاذبية الشكلية وفي تقديرهم لذواتهم أيضاً. وهو أمرٌ يشترك فيه الرجال والنساء كذلك. فمن يقدرون ذواتهم بشكلٍ كبير ربما يكونون أكثر ميلاً لاختيار أشخاصٍ يكنون لأنفسهم التقدير ذاته، لأن هؤلاء يكونون أكثر تفاؤلاً بشأن إمكانية إقامة علاقةٍ ناجحةٍ مع من يواعدونهم.
لكن هناك مشكلةً تتعلق بمسألة تحديد طبيعة نوايانا فيما يتعلق بمواعدة شخصٍ ما، وهي المتصلة بأن الناس عادةً ما لا يتسمون بالدقة على صعيد توضيح تفضيلاتهم في الشريك المحتمل لأي لقاء مواعدة. فالرجال على سبيل المثال، سيقولون لك إنهم ينجذبون إلى السيدات الذكيات، وذلك نظرياً. غير أنهم عملياً يكونون أقل ميلاً للالتقاء بنساءٍ من هذا النوع وجهاً لوجه، ربما بسبب عدم ثقتهم في ذكائهم هم أنفسهم.
وقد تنجذب إلى شخصٍ ما لا يتوافق مع معاييرك المحددة مُسبقاً، ما أن تلتقيه وجهاً لوجه. ونصل هنا إلى ما يُعرف بـ "المواعدة السريعة"، التي تقوم على تنظيم لقاءاتٍ قصيرة المدة بين مجموعة من الشركاء المحتملين لعلاقاتٍ عاطفيةٍ، خلال مناسبةٍ أو ليلةٍ ما، لكي يتسنى لهم تكوين فكرتهم عن بعضهم بعضاً. ويشكل هذا الأسلوب وسيلةً مفيدةً لاستكشاف طبيعة السلوك الذي سيسلكه هؤلاء الأشخاص خلال المواعدة، وذلك لأنه يمثل طريقةً واقعيةً نتفاعل فيها مع شركاءٍ جددٍ محتملين.
وتقول كارين وو، من جامعة "كاليفورنيا ستيت" بمدينة لوس أنغليس، إن الحياة اليومية تشهد الكثير من المواقف التي نلتقي فيها شركاء محتملين لمددٍ قصيرة. وتضيف: "قد تلتقي شخصاً ما في حانةٍ أو اجتماعٍ، أو وأنتم تمرون بجوار بعضكم بعضاً".
وفي سيناريو "التعارف السريع" هذا، يؤدي شعور المرء بالسعادة بعد لقائه شخصاً ما خلال تلك الأمسية، إلى تقليل فرص من سيلتقيهم بعده في أن يصبح أحدهم شريكاً محتملاً له في نهاية المطاف. ولا يعتمد الأمر هنا على مجرد رغبة الإنسان في التفاعل مع من شعر معه بالسعادة والارتياح، فقد تبين أن شعور المرء بأنه في حالةٍ مزاجيةٍ طيبةٍ في بداية الأمسية، أدى إلى حدوث الاحتمال السابق ذكره كذلك.
وتقول لورا سيل، من جامعة لوفان الكاثوليكية البلجيكية، إن المرء يتسم بروحٍ انتقاديةٍ أكثر، كلما كان في حالةٍ مزاجيةٍ سلبية. وتشير إلى أن الدراسات كشفت عن مفارقةٍ لافتةٍ تتمثل في أن الناس يعتبرون ما يشعرون به "معياراً للمقارنة" عندما يتعاملون مع أشخاصٍ جدد، وهو ما يعني "أنه إذا كان هؤلاء الأشخاص في مزاجٍ مواتٍ، فإن رأيهم في من يمكن أن يصبحوا شركاء محتملين لهم، يتناقض مع هذا الشعور، بمعنى أنه يتم الحكم في هذه الحالة على الطرف الثاني في اللقاء أو النقاش، على نحوٍ سلبيٍ بشكلٍ أكبر. وبدا الرجال أكثر تأثراً بهذا المزاج السيء" من النساء.
من ناحيةٍ أخرى، ترتبط الأهمية التي نُكْسِبها لخصالٍ وصفاتٍ بعينها، بالثقافة السائدة في المجتمع الذي نعيش فيه. وتقول كارين وو إن الغربيين مثلاً "ينجذبون إلى الأشخاص النرجسيين، إذ أنهم يبحثون عن أصحاب الشخصيات الانبساطية والواثقة في نفسها. والنرجسيون أفضل من غيرهم في الاعتناء بمظهرهم، وهو ما يجعلهم أكثر وجاهةً من الناحية الشكلية".
وقد درست وو سلوكيات المواعدة بين الأمريكيين من ذوي أصولٍ آسيوية، الذين تبين أنهم يولون اهتمامهم لقيمٍ بعينها تختلف عن تلك التي ينجذب لها الغربيون. وتقول إن "الثقافات التي تتسم بطابعٍ جماعيٍ أكبر، تميل إلى إعطاء أهميةٍ أقل لمسألة تحقيق المصالح الشخصية أو الفردية. أما الثقافات الغربية فتعطي تقديراً أعلى لأهداف الفرد مُقارنةً بما تمنحه لأهداف المجموعة. وربما تمنح الثقافات ذات الطابع الجماعي تقديراً أكبر لصفاتٍ مثل اللطف والطيبة، لأن أبناءها يهتمون بالفوائد التي تعود على المجموعة، أكثر من اهتمامهم بتلك التي تعود على الفرد".
ومن هذا المنطلق، فإذا جُرِبَت طريقة "المواعدة السريعة" بين أمريكيين مُنحدرين من أصل آسيوي، سيشير اتصاف أحد المشاركين فيها بالطيبة واللطف، إلى إمكانية نجاح التعارف بينه وبين من سيتفاعل معه عبر هذه الطريقة. رغم كل ذلك، كشفت الدراسات عن أن عامل التحلي بالجاذبية الشكلية بقي الأهم بالنسبة للرجال والنساء على حدٍ سواء.
وإذا وضعنا كل ما تقدم في الاعتبار، فسنجد أن عثورنا على شخصٍ ننجذب إليه وينجذب إلينا بالقدر نفسه هو بمثابة معجزة. فما يمكن أن يؤثر في مسألة إقامة علاقةٍ إيجابيةٍ بشكلٍ فوريٍ مع شخصٍ ما، يتمثل في كثيرٍ من العوامل التي تبدو بلا نهاية؛ من بينها طبيعة الحوار الذي دار بينك وبين شريكك المحتمل مباشرةً قبل أن تلتقيا، والمزاج العام لكلٍ منكما، والخلفية الثقافية لكما، والزاوية التي ينظر بها هذا الشريك لك.
وبالرغم من ذلك، هناك الكثير من الزيجات التي نشأت خلال الدراسات التي أُجريت بشأن "المواعدة السريعة" هذه، وهو ما يعني أن هذا النمط من المواعدة لا بد أنه ينطوي على قدرٍ من المنطق، كما تقول سيل، التي تضيف: "رُزِق البعض بأطفالٍ (كثمرةٍ لتلك الزيجات) وهو ما يعني أنها أفضت إلى بعض النتائج اللطيفة".

Thursday, April 4, 2019

अमित शाह के चुनाव क्षेत्र का यह मुस्लिम इलाक़ा 'अछूत' क्यों- लोकसभा चुनाव

"कांग्रेस को लगता है कि हम उसके घर की खेती हैं जबकि बीजेपी हमारी उपेक्षा करती है. हम चक्की में पिस रहे हैं." यह कहना है जुहापुरा के रहने वाले आसिफ़ ख़ान पठान का.
इस बार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात की गांधीनगर सीट से बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर नामांकन भरा है. ऐसे में अहमदाबाद से पश्चिम में मौजूद जुहापुरा एक बार फिर चर्चा में आ गया है.
लगभग पांच वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला जुहापुरा क़रीब पांच लाख लोगों का ठिकाना है जिनमें से अधिकांश मुसलमान हैं.
ये इलाक़ा पहले सरखेज विधानसभा सीट के अंतर्गत आता था, जहां से अमित शाह रिकॉर्ड बहुमत के साथ जीतते रहे थे. अब ये वेजलपुर विधानसभा क्षेत्र में और गांधीनगर लोकसभा सीट के तहत आता है.
गुजरात में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के बाद बड़ी तादाद में मुसलमान परिवारों ने सुरक्षा की चाहत में जुहापुरा का रुख़ किया था और यहीं पर अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू की. इनमें से कई परिवार 2002 दंगों के बाद यहां आ कर बसे थे.
अहमदाबाद के इतिहास को देखें तो यहां आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण हिंदू और मुस्लिम ही नहीं बल्कि जाति आधारित गलियां और मोहल्ले भी अस्तित्व में रहे हैं.
हालांकि पलायन और साम्प्रदायिक दंगों के कारण गुजरात सहित देश भर में एक ख़ास जाति के लोग एक जगह रहने को (घेटो में रहने) मजबूर हुए हैं, इस तरह की घटनाएं यहां भी देखी गई हैं.
एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े नज़ीर शेख़ कहते हैं, "जुहापुरा में रहने के कारण भेदभाव का सामना करना हमारे लिए आम बात है."
"रिक्शा चालक यहां आने के लिए तैयार नहीं होते हैं. अगर कोई आने के लिए तैयार हो भी जाए तो हमारा ग़ैर-मुस्लिम हुलिया देखकर कहते हैं- इस तरह के इलाक़े में क्यों रहते हो? यह सुरक्षित नहीं है."
"ऐप पर आप टैक्सी बुक करें तो कुछ देर में टैक्सी ड्राइवर ख़ुद ट्रिप कैंसल कर देते हैं."
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वाले सारिक लालीवाला कहते हैं कि जब यहां के युवा नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाते हैं तो उनके साथ भेदभाव होता है.
वो कहते हैं, "वो अपना असल पता बताने से डरते हैं और इस कारण अपने रिश्तेदारों का पता देना पसंद करते हैं."
हालांकि मांसाहारी के शौकीन हिंदुओं के लिए जुहापुरा की रेस्तरां और ठेले किसी तरह के 'फूड हब' से कम नहीं है.
समाज विज्ञानी अच्युत याज्ञनिक कहते हैं कि जुहापुरा में मुस्लिमों का सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक विभाजन भी हुआ है.
वो कहते हैं, "मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है."
1973 में साबरमती नदी में बाढ़ आई थी, तब दो हज़ार से अधिक बेघर हिंदू और मुस्लिम परिवारों को बसाने के लिए सरकार ने अहमदाबाद शहर के पश्चिम में एक जगह दी थी. यहीं पर बसी बस्ती का नाम पड़ा- जुहापुरा.
लेकिन गुजरात में 1985, 1987 और 1992 के दंगों के कारण हिंदू और मुसलमानों के बीच एक खाई पैदा हो गई. इसके बाद हुए 2002 के दंगों ने इस खाई को और भी गहरा कर दिया.
शहर के जिन इलाक़ों में कम संख्या में मुसलमान रहते थे उन्हें सबसे ज्यादा नुक़सान उठाना पड़ा. इसलिए सुरक्षित बसेरे की चाह में मुसलमान परिवारों ने जुहापुरा का रुख़ किया.
अहमदाबाद के नवरंगपुरा और पालड़ी जैसे इलाक़ों में रहने वाले शिक्षित और संपन्न मुसलमान परिवारों ने भी सुरक्षा की तलाश में जुहापुरा में ही की.
इसके अलावा 2002 में अन्य ज़िलों में दंगों के शिकार हुए लोगों ने भी जुहापुरा में शरण ली और धीरे-धीरे से एक बड़े मुस्लिम घेटो में तब्दील हो गई.
लेकिन जुहापुरा की पहचान शहर के भीतर एक दूसरे ही शहर के रूप में की जाती है.
अहमदाबाद एरिया डेवलपमेंट ऑथोरिटी के अंतर्गत आने वाले जुहापुरा को 2007 में अहमदाबाद नगरपालिका से जोड़ा गया लेकिन अब भी वहां मूलभूत सुविधाओं की कमी साफ़ दिखती है.

Tuesday, April 2, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

उनके अनुसार इन मुद्दों से समाज में धुवीकरण करने का जो मक़सद पूरा करना था वो पूरा हो गया.
संदीप पहल के अनुसार ये तो "लड़ाने का खेल है जिसे नेता इस्तेमाल करके लड़ाने का काम करते हैं."
नाराज़ संदीप पहल कहती हैं कि उन्होंने अब इन मुद्दों को अलग रख शिक्षा के मैदान में काम करना शुरू कर दिया है.
वो मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच शिक्षा बढ़ाने के काम जुटे हैं, "मदरसों में पढ़े जाने वाले मुसलमानों और साधारण हिंदुओं को शिक्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. यदि सभी एक ही शिक्षा प्रणाली से शिक्षित होते हैं तो कोई हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा नहीं बाक़ी रहेगा."
लोकसभा चुनावों में पहले चरण की वोटिंग के कुछ दिन ही बचे हैं और कांग्रेस राज्यों में गठबंधन की जोड़-तोड़ में लगी हुई है.
पूरे देश में जिस तरह की उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस के गठबंधन बनाने को लेकर, वो अंतिम वक़्त तक साकार होता नहीं दिख रहा है.
हालांकि कांग्रेस के युवा नेता और राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट का कहना है कि जिस भी गठबंधन से पार्टी की बात नहीं बन पाई है, वो चुनावों के बाद एक साथ आएंगी.
उन्होंने उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से बात नहीं बन पाने की भी वजह बताई.
बीबीसी के रेहान फ़ज़ल के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने कहा, "उत्तर प्रदेश में पार्टी को बहुत काम करने की ज़रूरत है. पिछली बार हम सिर्फ दो सीट जीते थे. इस बार प्रियंका गांधी भी चुनाव मैदान में हैं और पार्टी के लिए प्रचार करेंगी."
"यहां सपा और बसपा का गठबंधन हुआ है, जिसका हम सम्मान करते हैं कि उनकी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन ये गठबंधन भाजपा के विरोध में बनाया गया है और चुनाव के बाद सारी पार्टियां इकट्ठी आएंगी, इसमें बहुत ज़्यादा दुविधा वाली बात नहीं है."
चुनावों से पहले देश में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन बनाने की तैयारी हो रही थी. कई रैलियों में भी कांग्रेस और भाजपा विरोधी पार्टियों के नेताओं ने मंच साझा भी किया था, पर अंत अंत तक इसे मूर्त रूप नहीं दिया जा सका.
वहीं भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन का एलान काफी पहले ही कर दिया गया.
इस बारे में सचिन पायलट कहते हैं कि कांग्रेस भी अपने स्तर से रणनीति बना रही है, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को हराने की क्षमता कांग्रेस के पास ही है.
वो कहते हैं, "जो एनडीए का कुनबा था वो लगातार पांच सालों में टूटता गया है और यूपीए का कुनबा मजबूत हुआ है. जम्मू-कश्मीर हो, तमिलनाडु हो, झारखंड हो, बिहार हो, हर जगह हमारा गठबंधन हो गया है और हमलोग चाहते हैं कि हम अपने सहयोगियों को सम्मानजनक सीट दे. कांग्रेस पार्टी भी अपने स्तर से रणनीति बना रही है, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को हराने की क्षमता कांग्रेस के पास ही है."
पिछले साल हुए तीन विधानसभा चुनावों कांग्रेस ने जीत हासिल की, लेकिन बालाकोट के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाउंस बैक किया है और जिस तरह एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण के बाद उन्होंने पूरे देश को संबोधित किया, उसका ज़िक्र चुनावी रैलियों में किया जा रहा है.
ऐसे में कांग्रेस उसका काउंटर कैसे करेगी, इस सवाल पर सचिन पायलट कहते हैं यह सबकुछ मोदी सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रही है.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "एंटी सैटेलाइट मिसाइल परीक्षण से पहले ऐसा लग रहा था कि वो कुछ धमाकेदार घोषणा करने वाले हैं, पर उन्होंने एंटी सैटेलाइट मिसाइल के बारे में देश को बताया."
पायलट कहते हैं, "ये जो राष्ट्रवाद को दोबारा से परिभाषित करने की मुहिम छिड़ी है, ये काल्पनिक है क्योंकि देश के सच्चे नागरिक को कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए. मुझे किसी भाजपा से या दल से या किसी नेता से ये सर्टिफिकेट नहीं चाहिए कि मैं देशभक्त हूं या नहीं हूं. ये मेरे जेहन में है, मेरे रूह में है, मेरे खून में है.
उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए आप सेना की वीरता, उनके शौर्य की आड़ में काम कर रही है.
हालांकि भाजपा इन आरोपों को खारिज करती रही है. पार्टी का कहना है कि चरमपंथ के ख़िलाफ़ उनकी सरकार ने जो फ़ैसले लिए हैं, वो पहले की सरकारों ने नहीं ली.
नरेंद्र मोदी ने रविवार को एक निजी चैनल के कार्यक्रम में कहा कि एंटी सैटेलाइट मिसाइल का परीक्षण कई साल पहले ही हो चुका होता अगर सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई होती.
हालांकि पायलट कहते हैं कि देश पर अगर कोई आंख उठा के देखता है तो सरकार किसी की भी हो, प्रधानमंत्री कोई भी हो, जवाब वही मिलेगा जो मिलना चाहिए.
उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ गया कि आप सेना का रानजीतिकरण नहीं कर सकते हैं. क्योंकि चुनाव का मुद्दा आम आदमी की रोजी-रोटी से जुड़ा होना चाहिए. महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक संकट पर चर्चा होनी चाहिए."
भाजपा के नेता अपनी हर रैलियों में सरकार के कार्यकाल को भ्रष्टाचार मुक्त होने का दावा कर रहे हैं.
इस पर सचिन पायलट कहते हैं नरेंद्र मोदी की सरकार में सरकारी संस्थाएं नष्ट कर दिए गए. उन्होंने कहा, "देश भर में जो भी संस्थाएं हैं, मैंने कभी नहीं सुना कि सीबीआई, सीबीआई पर छापा मार रही है, ईडी, ईडी को नोटिस दे रहा है. रात के दो बजे सीबीआई निदेशक बर्खास्त किए जाते हैं, कोर्ट उस फैसले को पलट रही है, सुप्रीम कोर्ट के चार जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं."
पायलट इन सभी को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हैं और कहते हैं कि ये सभी व्यवस्थाएं वर्तमान सरकार के दौरान बनीं, जो देश को खतरे में डाल सकती हैं.